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गीत अपने-आप होते हैं / कुमार रवींद्र
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					सुनो साधो !
यही सच है - गीत अपने-आप होते हैं 
एक मीठा सिंधु है भीतर 
हाँ, उसी में ज्वार आता है
किसी टापू पर कहीं कोई 
बाँसुरी छिपकर बजाता है  
या गुफ़ा में 
किसी गायन के गूँजते आलाप होते हैं 
सुर उसी रस-सिंधु के बाहर 
शब्द में आकार लेते हैं 
नाव है लय-छंद की आदिम 
रक्त में हम उसे खेते हैं 
गान बनते 
अप्सरा के हम - मंत्र का या जाप होते हैं
गीत का जब जन्म होता है 
भीगते हम रस-फुहारों में 
गूँजती है घुँघरुओं की धुन 
देह के घाटों-कछारों में 
उस अलौकिक 
गीत-वेला में शांत सारे ताप होते हैं
	
	