गीत और मैं / बालस्वरूप राही
मैं न बुलाने गया कभी गीतों को इनके द्वार
ये ही पता पूछते सबसे आये मेरे पास।
जाने इनके कानों में कह दी किसने यह बात
'उसे सुला आओ वह ही जगता है सारी रात'
मैं तो बचपन से एकाकी रहने का अभ्यस्त
मुझे रास आता है केवल सूनेपन का साथ।
पर यह तो नटखट गीतों की बहुत पुरानी टेव
जान-जान कर उसे छेड़ते, देखें जिसे उदास।
मेरी ऐसी पीर कि जिसका मुझसे ही सम्बन्ध
फूल अगर हूं मैं गुलाब का, वह है मेरी गंध
मैं न कभी चाहूंगा धर कर वह जोगिन का वेश
द्वार द्वार पर अलख जगाये बन दर्दीले छंद।
मेरी पीर बहुत कोमल है दुनिया बड़ी कठोर
वह दुलार पायेगी सबका, इसका क्या विश्वास।
एक शाम मेरे घर आकर बोले मुझसे गीत
'राज तुम्हारा कभी किसी से हम न कहेंगे मीत'
पहले तो बहला फुसला कर जान लिया सब भेद
अब प्रचार करते फिरते हैं मेरे ही विपरीत।
आंगन आंगन मर्ज बदनामी करते हर रोज़
गली गली में करवाते हैं ये मेरा उपहास।
उतने ही वाचाल गीत हैं मैं जितना गंभीर
मन के काले हैं ऊपर से दीखें भले फ़क़ीर
इनसे दर्द कहे मत कोई, ये ऐसे हमदर्द
जितनी पीर बांटते करते उससे अधिक अधीर।
ये तो जनम जनम के छलिया इनसे कैसा मोह
जितना अमृत पिलाते उससे अधिक बढ़ाते प्यास
मैं न बुलाने गया कभी गीतों को इनके द्वार
ये ही पता पूछते सबसे, आये मेरे पास।