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गीत कालातीत पर्वत के / श्याम नारायण मिश्र
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घाटियों में,
लाल-पीली माटियों में,
ढल रहे हैं नील-निर्झर-गीत पर्वत के ।
पीकर बूँद पखेरू पागल
जंगल-जंगल चहके ।
चुल्लू भर पीकर वनवासी
घाटी-घाटी बहके ।
मादलों से,
होड़ करते बादलों से,
जब बरसते हैं सुधा-संगीत पर्वत के ।
सुबह पहाड़ों के माथों पर
मलती जब रोली ।
माला हो जाती वनवासी
कन्यायों की टोली ।
अर्गलाएँ,
तोड़ सारे द्वन्द्व सीमाएँ,
तौलते हैं बाजुओं को मीत पर्वत के ।
दुपहर छापक पेड़
ढूँढकर बैठी काटे घाम ।
संध्या की रंगीन छटाएँ
बंजारों के नाम ।
यामिनी में,
दूध धोई चांदनी में,
तैर जाते गीत कालातीत पर्वत के ।