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गीत चल पड़ा है / संतोष श्रीवास्तव

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मेरे मन के कोने में
इक गीत कब से दबा हुआ है

सुना है
जल से भरे खेतों में
रोपे जाते धान के पौधों की कतार से
होकर गुजरता था गीत

बौर से लदी आम की डाल पर
बैठी कोयल के
कंठ से होकर गुजरता था गीत

गाँव की मड़ई में
गुड़ की लईया और महुआ की
महक से मतवाले, थिरकते
किसानों के होठों से
होकर गुजरता था गीत

अब गीत चल पड़ा है
सरहद की ओर
प्रेम का खेत बोने
ताकि खत्म हो बर्बरता

अब गीत चल पड़ा है
अंधे राजपथ और
सत्ता के गलियारों की ओर
ताकि बची रहे सभ्यता