गीत जब खो जाता है / विद्याभूषण
आज का सबसे जटिल सवाल
मित्र, मत पूछो यह फ़िलहाल,
गीत कब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है ।
सुबह-सवेरे
सब को घेरे
अफ़वाहों का दबा-घुटा-सा शोर
कि आज की भोर
क़त्ल की ओर...
मुहल्ले में चौराहे बीच
रक्त की जमा हो गयी कीच ।
किसी का ख़ून हो गया, प्रात
एक झुरझुरी भरा आघात
कि बाक़ी दिन क्या होगा हाल
सुबह का रक्त सना जब भाल ?
चार कंधों पर चलते शब्द
पसर जाते हैं
पस्त निढाल ।
सहमते-से सारे एहसास
कि ऐसी हत्याओं के पास
एक आतंक
घूमता है बिल्कुल निश्शंक,
जेल से छुटे हुए
खुफ़िया चेहरों के डंक ।
चतुर्दिक झूठा रक्षा चक्र
आम जीवन-समाज दुश्चक्र ।
शब्द हो जाते हैं लाचार,
नहीं दिखता कोई उपचार ।
प्रशासन देता सिर्फ़ कुतर्क-
तर्क का बेड़ा करता ग़र्क ।
भेड़ है कौन ? भेड़िया कौन ?
व्यवस्था मिटा रही यह फ़र्क ।
किन्तु मथता है एक विचार
कि सोचो अब
क्या हो प्रतिकार ।
अजब है ऐसा लोकाचार
कि पशुता का अरण्य विस्तार...
इसी बीहड़ जंगल के बीच
प्रश्न जब ले जाते हैं खींच,
गीत तब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है ।