भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत नहीं बन पाया / हरेराम बाजपेयी 'आश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत कोशिशें की लेकिन
कोई गीत नहीं बन पाया,

अक्षर-अक्षर आहत देखे,
शब्द-शब्द को श्रीहत पाया,
पंक्ति-पंक्ति में पीड़ा पाई,
छन्द-बन्ध की खण्डित काया,
भगी व्याकरण व्याकुल होकर,
चली न कोई उसकी माया। बहुत कोशिशें की...

राग सभी बेराग हो गए,
भावों को अभावमय पाया,
गीत-गजल सब गुमसुम बैठे,
कविता की कराह सुन पाया,
बखै, दोहा और सोरठा,
कोई मुझको नजर न आया। बहुत कोशिशें की...

तार-तार कागज सब हो गए,
कलम को कारागृह में पाया,
स्याही सुखी स्वाभिमान की,
जिस पर "आश" ने स्वप्न रचाया,
चिंतन जला चीता के माफिक,
साथ छोड़ गई तन की छाया,

बहुत कोशिशें की लेकिन,
कोई गीत नहीं बन पाया॥