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गीत पत्थर हुए / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
और बढने लगे आग के दायरे
दिन धुएँ हो गये
यह शहर क्या करे
बस्तियाँ फूल की
हो गयीं लाखघर
प्यास इतनी बढ़ी
पी रहे सब ज़हर
कैद आँगन हुए / घर हुए कटघरे
यह शहर क्या करे
लोग आगे बढ़े
मुट्ठियों में कसे
अक्स जलते हुए
मौत के हादसे
गीत पत्थर हुए / आदमी मकबरे
यह शहर क्या करे
भीड़ के शोर में
खो गयीं आहटें
कोई अपना नहीं
आयने तक बँटे
पीठ कैसे टिके / ढह गये आसरे
यह शहर क्या करे