गीत बनकर मैं मिलूँ / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
गीत बनकर मैं मिलूँ यदि रागिनी बन आ सको तुम।
सो रहा है दिन, गगन की गोद में रजनी जगी है,
झलमलाती नील तारों से जड़ी साड़ी फबी है।
गूँथ कर आकाश-गंगा मोतियों के हार लाई,
पहिन कर रजनी उसे निज वक्ष पर कुछ मुस्कुराई।
चित्र अंकित कर रही धरती सरित के तरल पट पर,
समझ यह अनुचित, समीरण ने हिलाया हाथ सत्वर।
इस मिलन की रात का प्रिय
चित्र बनकर मैं मिलूँ रेखा अगर बन आ सको तुम।
जा रही है रात, आया प्रात कलियाँ मुस्कराईं,
मधुप का गुंजन-निमंत्रन सुन झुकीं कलियाँ, लजाईं।
कान में कुछ कह गया, कह बह गया चुपके समीरण,
रश्मियाँ आईं उतर, भर गाँग कलियों की मगन मन।
झूमती तरु-डालियों ने मधुर मंगल गीत गाए,
धरणि ने स्वागत किया नवयुग्म का, मोती लुटाए।
इस विहँसते प्रात में प्रिय,
फूल बनकर मैं खिलूँ यदि गंध बनकर आ सको तुम।