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गीत रह गए क्यों अनगाए! / यतींद्रनाथ राही

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कहीं डाल पर
एक पखेरू
बैठा बैठा चुहक रहा है
नाच उठा है आँगन अपना
कन-कन जैसे महक रहा है
डाल-डाल इतरायी सी है
पात-पात पर
नर्तन-नर्तन
पल-पल झंकृत भौंर
तितलियों के
कितने मोहक आवर्तन
जीवन का आनन्द
सृष्टि से
हम क्यों?
अब तक
सीख न पाये?

हमने तो सीखी है
केवल महानाश की मन्त्र-साधना
आँखों में नफरत के डोरे
मानस में विध्वंस भावना
धरी आरियाँ
कटे मुण्ड-धड़
तड़पें-चीखें-बिखरी लाशें
प्यासी पाँव पटकती नदिया
हरियाली की उखड़ी साँसें
अपने नव विकास के पथ पर
जीवन रक्षक
विटप ढहाये।

आँगन की गौरैया खोयी
सुअना कहाँ गए पिंजरे के
मैना रोयी
काग उड़ गये
दुखड़े कौन सुने हिवड़े के
सूनी पड़ी मुडेर
परेवा
गए कौनसा देस बसाने
हंसा और कपोतो वाले
बिलख रहे
सन्देस अजाने
द्वार-दरीचे-खिड़की
जैसे
दूर खड़े से
हैं अनखाये।
21.11.17