भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत / सुरेन्द्र प्रसाद 'तरुण'
Kavita Kosh से
गामा के पच्छिम बगैचा के छौआ
परदेसी सोचय पहुचंलु अब गौआ
कि पीरवा से मातल सनेहिया मेँ डूबल
गावय जमानी के गीत रे ।
अनबूझ जमानी के पीरवा जगा के
परदेशी चललय अबीरवा लगा के
छोट के ननदिया से बड्की भाउजइया
पूछहय जगवा के प्रीत रे ।
छगुनहय मइया संझौवा के बेला
बितल महीनो बुतरुआ के गेला
नीमियां के सुखल ड्ंघुरिया पर कागा
गावहय गीतिया अतीत रे ।
ओलहना सुनावहय सखिया सहेलिया
उनखर बतावय नञ बतिया नवेलिया
का देलथून हमरा ला का देलथून तोरा
बोलय नञ पीरवा के जीत रे ।
बहिनी निहारय डगरिया कि भैया
देतन ऊ मन चाही गोड़ के धौवैया
हाथा मे काड़ा करमफूल बाला
बिहंसहय उर के संगीत रे ।