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गीत 10 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'
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मन हमारा पीर का कानन
मन हमारा...
तुम कि हमको कह रहीं हो - ख़ुश रहो रे मन!
और तुमसे कह रहा है देह की उलझन-
प्रेम हारा, प्रेम प्यासा मन।
मन हमारा पीर का कानन।
हम नहीं क्यों तोड़ पाए वर्जनाओं को।
जोकि पल-पल छल रही थीं एषणाओं को।
प्रेम का पर्याय है अड़चन।
मन हमारा पीर का कानन।
जो हमारे नाम पर शृंगार करती थी।
जो हमारी जीवनी को सार करती थी।
जी रही मन मार के जीवन।
मन हमारा पीर का कानन।
जब स्वयं की आत्मा से हो चला है द्वंद।
इसलिए हम लिख रहे हैं पीर रंजित बंध।
जो बनेंगे माथ का चंदन।
मन हमारा पीर का कानन।