गीत 11 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'
वेदने को
धन्य कर दी तू ! उदधि- सी पीर पीकर
धन्य री ! तेरी विकलता वर्णिके! तू धन्य है री!
मौन थे
तेरे अधर औ कंगनों की खन-खनाहट।
रो रही थी वाटिका में पत्तियों की सर-सराहट।
मेघ अंजन लग रहे थे नैन बरसे बाद इनके-
पीर का शृंगार तुझको लग रहा था और रुचिकर।
धन्य री ! तेरी विकलता...
प्रेम की
चरितावली लिख प्रेम के पर्याय बदले।
प्राण! तूने प्रीत से जड़ हर्ष के अध्याय बदले।
प्रेम घोला अश्रुओं में फिर स्वयं की तूलिका से-
मूक पृष्ठों पर रचा अनुरक्तियों के स्वर्ण- अक्षर
धन्य री ! तेरी विकलता...
सार बदला
अर्थ बदले आह की अवधारणा के।
गीत में नव प्राण डाले प्रीत रंजित वेदना के।
वर्जनाएँ अनगिनत थीं किन्तु मुझमें गीतिके री -
शुचि प्रणय के बीज बोकर सीचती आई निरंतर।
धन्य री तेरी विकलता...