गीत 13 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'
जन्म लेती यूँ न कविता बिन प्रसव -सी वेदना के।
आत्मा के गर्भ में जब
पीर पलती है चिरंतन।
जब करे है देव दानव
उर उदधि शत वर्ष मंथन।
आत्मा से तब अमिय की धार यह बहती अचानक।
सो गई थी उर विवर में भूल कर जो निज कथानक।
भाव रूपी देह पर कवि वर्ण के मणि गूंथ कर फिर -
मौन पृष्ठों पर सजाता शब्द उर की वेदना के।
जन्म लेती यूँ न कविता ...
वेदना है वो कि जिसमें
प्रेम की अम्लान धारा ।
पीर सह सचमुच प्रणयिणी,
काटती उर अंध कारा ।
दग्ध मन को जब तृषा का वेग मय आभास होता।
भाव की माला पिरोने का तभी अभ्यास होता।
काव्य फिर है जन्म लेता व्यंजिके ! की आत्मा से-
स्वर्ण रव कुछ ले तुम्हारे , कुछ हमारी वेदना के।
जन्म लेती यूँ न कविता ...
जब भुवन भर हो व्यथा में
और निशि दिन नैन बरसे।
जब तृषा हो हर अधर पर
नीर बिन पर लोग तरसे।
एक मौसम जब कभी भी दूसरे को मारता है।
अघ मृषा से इस जगत में सत्य जब-जब हारता है।
तब अधर पर आह आकर गीत का पर्याय बनती -
क्योंकि यह संभव नहीं है बिन कभी भी वेदना के।
जन्म लेती यूँ न कविता ...