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गीत 7 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

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हमें ज्ञात है
वही करोगी जिस से हमको चिढ़ होती है-
तुमने अपने अहंकार में बात हमारी मानी कब है.?
हमने तुमको आत्म ग्लानि से
ख़ुद में जलने पर रोका था।
छद्म भेष धर आया रावण
जब तब मिलने पर टोका था।
तुम हो सीता एक राम की राम तुम्हारे मन हैं पगली!
किंतु बुद्धि के आगे तुमने बात राम की मानी कब है।
हमें ज्ञात है ...
हमने तुमको रोका-टोका
अपना समझा प्राण दिया है।
यह मत कहना हमने तुमको
ऊपर-ऊपर प्रेम किया है।
अलग बात है तुमने सारी रोक-टोक को उल्टा समझा-
इसी हेतु तो हमने भी री! बात तुम्हारी मानी कब है.?
हमें ज्ञात है ...
थोड़ा-थोड़ा ही समझो पर
समझो तो तुम मन को अपने।
क्योंकि तुम्हारी मनमानी से
बेचारा मन लगा तड़पने।
पगली! यह इक बीमारी है जिसमें तन औ चेतन लड़ते
लेकिन अपने हठ में तुमने यह बीमारी मानी कब है.?
हमें ज्ञात है ...