भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीदड़ की शामत / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
{KKGlobal}}
काम न धन्धा कुछ जंगल में,
रोटी कैसे खाए,
गीदड़ चला शहर को,
शायद रोज़गार पा जाए ।
सोच रहा था खड़ा किनारे,
घुसूँ किस तरह अन्दर,
तभी दिखाई दिया शहर से
वापस आता बन्दर ।
गीदड़ बोला, “बन्दर भाई !
कितना माल कमाया,
मुझको भी कुछ काम मिलेगा,
यही सोचकर आया ।"
बन्दर बोला, “शहर न जाओ,
वरना पछताओगे,
काम न ठेंगा वहाँ मिलेगा,
भूखों मर जाओगे ।
सुना नहीं क्या, बुरे हाल,
चल रही उधर मन्दी है ।
और शहर की हर फ़ैक्टरी में
अब तालाबन्दी है ।"
गीदड़ भाई ! शामत जिसकी आई,
गया शहर को,
मेरी मानो, लौट चलो तुम भी संग
वापस घर को ।”