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गुंचा-ओ-गुल की कमी है न बहाराँ की कमी / नज़ीर बनारसी
Kavita Kosh से
गुचा-आ-गुल की कमी है न बहारों <ref>कली और फूल</ref> की कमी है न बहारों <ref>बहार ऋतु</ref> की कमी
चन्द कॉटे भी, कि पूरी हो गुलिस्ताँ <ref>बागीचा</ref> की कमी
कैसे पूरी करूँ इस आलमे इम्काँ <ref>संसार</ref> की कमी
आदमी का तो हैं जंगल मगर इन्साँ की कमी
जिन्दगी अब भी है बेचैन सँवरने के लिए
आज भी है मेरे अफसाने मं उन्वाँ <ref>शीर्षक</ref> की कमी
जब भी आँसू मेरी आँखों से बढ़े है आगे
मुझको महसूस हुई है तेरे दामाँ <ref>दामन</ref> की कमी
कल भी जंजीर का झंकार पे गाया हमने
आज भी हससे ही पूरी हुई जिन्दाँ <ref>कारागार</ref> की कमी
हमको जीने का सलीका नहीं मालूम ’नजीर’
वरना इस दौर <ref>युग</ref> में है कौन से तूफाँ की कमी ।
शब्दार्थ
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