भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुजरात (1) / मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


लौटने के बाद भी
कहा लौट पाते हैं हम
सैकड़ों कोसों के
फासले के बावजूद।

सावण के लोर-सी
घिर-घिर कर आती है
स्मृतियाँ
खींच ले जाती है
फिर से
सौराष्ट्र की सरजमीं पर
ठीक वही तड़प
जो महसूसता था मैं
धोरों के लिए
गुजरात रहते।

गूंजने लगती है
डूंगर वाले
खोडियार मंदिर की घंटिया
'मासी नी लॉज' के
ओळा-रोटला की
याद भर से
मुंह में भर आता है पानी
नजरें तलाशने लगती है
सड़क पर
किसी छकड़े को
जाने क्यों
गरबा के बोल
गुनगुनाने लगता है
मन।