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गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं / सोनरूपा विशाल
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गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं
थोड़े क़िस्से याद हैं मुझको थोड़े भूल गयी हूँ मैं
सोचा है मैं दर्द छुपा लूँगी अपने आसानी से
सीने में जासूस छुपा है ये क्यूँ भूल रही हूँ मैं
एक सबब ये भी है हँसते हँसते चुप हो जाने का
अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ज़्यादा ओढ़ चुकी हूँ मैं
रोज़ सुब्ह उठ जाया करते हैं मुझ में किरदार कई
पर बिस्तर से ख़ुद को तन्हा उठते देख रही हूं मैं
इसीलिए बेसब्र हूँ उसके मन की बातें सुनने को
अपने मन की सारी बातें उससे बोल चुकी हूँ मैं