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गुज़रे वक़्त में देखने का हौसला / पृथ्वी पाल रैणा
Kavita Kosh से
गुज़रे वक्त में
देखने का हौसला
क्या वजह है आज गुज़रे वक्त में
देखने का हौसला होता नहीं।
किस तरह टूटी हुई दीवार पर
हम कैलेंडर की तरह लटके रहे
बावजूद इसके कि सब कुछ साफ था
समझने में भूल होती ही गई
लडख़ड़ाते रेंगते बीती उमर।
इक करिश्मा ही तो थी वह जि़न्दगी
कुछ नहीं था फिर भी हम जिन्दा रहे।
अपने पैरों पर भरोसा करके हम-
चल पड़े होते तो कुछ मुश्किल न था
रास्ते की मुश्किलों का सोच कर
उम्र भर इस छोर पर अटके रहे
उम्र गुज़री ठोंकरें खाते हुए
पत्थरों के शहर में जो घर बनाया
जो सदा बेघर भटकते से दिखेे
जाते जाते वे फरिश्ते हो गए