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गुज़र गई कई सदी / रूपम झा
Kavita Kosh से
गुज़र गई कई सदी
मिली न कोई रोशनी
जो भूख का सवाल था,
है आज भी वहीं खड़ा
वहीं हमारा ख़्वाब भी
लहूलुहान है पड़ा
लहास बन के रह गई
हमारी पूरी जिन्दगी
बढ़ा ही जा रहा यहाँ
सितमगरों का कारवां
यों जंगलों के रास्ते से
जा रही सदी कहाँ
सहम चुका है आज क्यों
यहाँ हरेक आदमी
रहेंगे और कब तलक
यूं चुप्पियों पर चुप्पियाँ
लुटेंगी और कब तलक ये बस्तियाँ ये झुग्गियाँ
हमारा वर्ग कब तलक सहेगा सिर्फ़ बेबसी
कबूल अब हमें नहीं
ये मुफलिसी ये जिल्लतें
न ढो सकेंगे और हम
ये झूठ और नफरतें
हमारे हर सवाल का
जवाब चाहिए अभी