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गुनगुन के लिए / हेमन्त देवलेकर

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जी चाहता है
तेरा गुब्बारा बन जाऊँ
या बन जाऊँ घर्र-घर्र घूमती चकरी
या फिर झूला
गेंद,
गुड़िया,
या जैसी भी तेरी मर्ज़ी

खिलौनों में डूबे हुए बच्चे
ईश्वर के बेहद क़रीब होते हैं
मैं तेरी और ईश्वर की अंतरंगता का
साक्षी बनना चाहता हूँ

तेरा खिलौना बनकर देखूँ तो सही
क्या-क्या श्रम करना पड़ता है
तुझे हँसाने में,
तुझे मनाने में,
कौतूहल जगाने में

तेरे चेहरे पर बसंत खिलाने के लिये
खिलौने को अफ्नी सारी ऋतुएँ
खर्च करनी होती हैं
यह कोई सहज बात भी तो नहीं
खिलौना बनना बड़े धीरज का है काम
बड़े साहस की है बात
तू फेंकती है
रौंदती है
तोड़ती है
मोड़ती है
जितनी आत्मीयता से भींचती है बाँहों में
उतनी ही निष्ठुरता से छोड़ भी देती है अकेला।

लेकिन खिलौने को
हर हालत में
अटूट संयम पाले
बस मुसकाना ही होता है
जब तक कि तू फिर नहीं लौटती अपने खेल में
उसे फिर नहीं उठाती-पुचकारती,
गोदी में नहीं बिठाती

उसके बाद भले ही सब्र का बाँध फूटे
और खिलौना तेरी फ्रॉक में मुँह दबा
चुपके-चुपके रो ले
आज़ादी है...।