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गुफा के मुहाने पर एक कविता / सत्यप्रकाश बेकरार

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यह जो सामने है
गहरी-सी अंधेरी-सी
विकराल गुफा
निश्चित ही यह मंजिल तो नहीं थी मेरी
और पीछे भी
धुंधला गए हैं गुजरी राहों के निशां
क्या बताएं कि कहां से रास्ता भूले।

संभव है इसका कोई बहिर्गमन द्वार भी हो
संभव है कदम कम पड़ जाएं,

और यह भी संभव है
एक ही मुंह हो इसका।
लौट जाना भी कहां संभव है,
कहां संभव है रुके रहना!
नियति जीवन ही है
आगे ही आगे चलते रहना,
लो, प्रवेशता हूं इसके भीतर,
फिलहाल विदा।