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गुमनामी बेहतर है यारों बद से और बदनामी / पल्लवी मिश्रा

गुमनामी बेहतर है यारों बद से और बदनामी,
इज़्ज़त की है मौत भली, जिल्लत की ज़िंदगानी से।

धन-दौलत का दरिया गहरा, डूब गये तो बचना मुश्किल,
फिसले न ये पाँव तुम्हारा, साहिल पर नादानी से।

नूर टपकता चाँद से लेकिन, है वह भी बेदाग कहाँ?
इज़्ज़त पर लग जाये जो धब्बा, छूटे न आसानी से।

गलत रास्ते चलकर राही मंजिल कभी न छू पाओगे,
इसी राह जो पहले गुजरे, सीख लो उनकी कहानी से।

एक ही लोटा पास तुम्हारे, फिर ताल-तलैया-सागर क्या?
ज्यादा कैसे ले पाओगे, इक लोटा भर पानी से।

जब तक जुल्म सहा खामोश, खूब अकड़ दिखाई उसने,
जब किया पलटकर वार, पसीना छलका क्यों पेशानी से?

गुजर गया वह वक्त ‘मान’ जब बुजुर्गों को मिलता था,
आज बुढ़ापा हो बैठा है, नाउम्मीद जवानी से।