भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुमनाम गुज़रे ज़माने / शिव रावल
Kavita Kosh से
गुमनाम हो गए वह लोग जो जाने-पहचाने थे
अजनबी से गुज़र जाते हैं आजकल कभी जो मेरे गुज़रे ज़माने थे
आप क्यों बेवजह खफा होते हैं साहेब
रिश्ता भला क्या जाने, दूरियों में लिपटे अफ़साने थे
मैंने इक जख्म छेड़ा था अभी फिर यूँ हुआ
के दर्द थे हिस्से के उनके और रखे मेरे सिरहाने थे