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गुमसुम तकै छी / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
राति-दिन थर-थर कँपइए पानि
हम गुमसुम तकै छी ।
आइना केर वैह पुरना बानि
हम गुमसुम तकै छी ।
भीत पर उखरल अहाँ केर नाम
कहियो इजोरिया छल
आइ सभ आखर रहल अछि कानि
हम गुमसुम तकै छी ।
हम प्रतीक्षा मे छलहुँ
क्यो रंग घोरत कासवन मे
इन्द्रधनु टूटत कत' के जानि
हम गुमसुम तकै छी ।
दीप तर पसरल अन्हारक साँप
पलथी मारने अछि
आँखि मे फेर डबडबायल ग्लानि
हम गुमसुम तकै छी ।
यात्रा तँ यात्रा थिक
ल'ग की थिक, दूर की थिक
किंतु सूतब एना तौनी तानि
हम गुमसुम तकै छी ।