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गुमसुम सी रहगुज़र थी, किनारा नदी का था / मोहसिन नक़वी
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गुमसुम सी रहगुज़र थी, किनारा नदी का था
पानी में चाँद, चाँद में चेहरा किसी का था
अब ज़िन्दगी संभल कि लेता है तेरा नाम
ये दिल कि जिसको शौक कभी खुदकुशी का था
कुछ अब्र भी थे बाँझ ज़मीं से डरे हुए
कुछ जायका हवा में मेरी तिशनगी का था
कहने को ढूंढते थे सभी अपने खद-ओ-खाल
वरना मेरी ग़ज़ल में तो सब कुछ उसी का था
वह एतिहात-ए-जान थी कि बे-रब्ती बे-ख्याल
साए पे भी गुमान मुझे आदमी का था
मुश्किल कहाँ थे तर्क-ए-मुहब्बत के मरहले
ऐ दिल मगर सवाल तेरी ज़िन्दगी का था
वह जिसकी दोस्ती ही मता-ए-ख़ुलूस थी
'मोहसिन' वो शख्स भी दुशमन कभी का था