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गुमाँ नू क्यूँके करूँ तूझ पे दिल चुराने का / 'ममनून' निज़ामुद्दीन
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गुमाँ नू क्यूँके करूँ तूझ पे दिल चुराने का
झुका के आँख सबब क्या है मुस्कुराने का
ये सीना है ये जिगर है ये दिल है बिस्मिल्लाह
अगर ख़्याल है तलवार आज़माने का
किसी के होंठ के मिलते ही हम तमाम हुए
मज़ा मिला ने हमें गालियाँ भी खाने का
मुझे ये दर्द है मालमू हुक्त-ए-बुलबुल बिन
न मेरी ख़ाक पे कर क़स्द फूल लाने का
किया फ़रेफ़ता कह कह के हाल-ए-दिल उस को
असर फ़ुसूँ से नहीं कुछ कम इस फ़साने का
ग़मों की गर यही बालीदगी है तो आख़िर
दिल-ए-गिरफ़्ता नहीं सीेले में समाने का