बीत चुके जीवन
और पाँच पानी के प्रदेश की
पुरानी सभ्यता में
सौन्दर्य के उच्छलन की
खोज करती सूक्ष्म दृष्टि
रुक जाती है
मील के कुछ पत्थरों पर.
आग, पहिये और नुकीले
प्रस्तर हथियारों के बिन्दु पर,
वियोगी कवि की
आह से उपजे गान की
पहली पंक्ति पर,
उस वार्तालापहीनता पर
जो हिमालय के बहुत ऊँचे
दो पड़ोसी शिखरों के मध्य कायम है.
मिस्र के पिरामिडों, सीजर की कथाओं
और हाल ही में
निचुड़कर ख़त्म हो चुकने के बाद
आज़ाद हुए अफ़्रीकी देशों की व्यथाओं पर.
आज़ादी के अफ़्रीकी अर्थ पर भी,
जहाँ इसका मतलब
या तो भूखों मरने की स्वतंत्रता है
या एड्स के दुष्चक्र में जा फँसने का
सहज लोकतांत्रिक विकल्प.
शायद इसीलिए राज्य की उत्पत्ति के
अनेक सिद्धान्त
एशिया, यूरोप, अमेरिका और अफ़्रीका पर
एक-से नहीं लागू होते.
मायने अलग हैं उनके.
एक की गर्दन झुकती है प्रार्थना के लिए
लाठी सहने के लिए दूसरे की
मारने के लिए तीसरे की....
एक की कोई काव्य-भाषा ही नहीं,
भाषा की अपर्याप्तता को
कोसते हुए रचता है दूसरा.
फूल एक जैसा कहाँ खिलता है,
सभी के लिए!
शकों, हूणों, चोलों, मुग़लों, मंगोलों पर...
यहाँ भी कि कैसे-कैसे अनेक किरदार
इतिहास के कूड़ेदान में पेंदे पर चले गये.
रुकती है निगाह वहाँ
भाषा पर सबसे जघन्य हमले हुए जहाँ.
अवास्तविक शहर, आभासी सत्य, उबकाई और
बेतुके नाटक समेत रामराज्य की संकल्पना पर भी.
पर सौन्दर्य का उच्छलन कहीं मिलता नहीं,
सरलता का सोता कहीं दिखता नहीं.
हाँ, विश्वास के छले जाने, रिश्तों को बेच डालने,
सत्ता के लिए छल-छद्म-साम-दाम
सभी के प्रयोग के तरीके मिल जाते हैं
कमोबेश एक-से, सभी जगह.
फिर चाहे वे नोर्डिक मिथक कथाएँ हों
या लैटिन अमेरिकी साहित्य का जादुई यथार्थवाद.
कहीं-कहीं, एकाध जगह
अभावों की सलाखों से नज़र आता है
सौन्दर्य का उच्छलन, झीना-सा.
खिसियाकर झाँकते हुए
बार-बार ठगे गए तुतलाते बच्चे-सा;
कह रहा हो मानो
सौन्दर्य-सौन्दर्य के शोर में
शोर सुन्दर हो गया
गुम गया सौन्दर्य
करीब-करीब हमेशा के लिए.