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गुम हुआ शहर / महावीर सरवर
Kavita Kosh से
गुम हुआ शहर हूं मैं
लौटा दो मुझे ढूंढ़कर। मुझी को लौटा दो
किसी तरह।
चले गए हैं वे लोग। जो हर शाम फना होते थे
मेरे लिए/मैं आज भी वैसी ही
फाकाकशी भुगता रहा हूं
चले गए हैं वो कहीं दूर जगमगाते गलियारों में-
घायल कर गए हैं वे मुझे-
ठंडा लहू रिसता हुआ
घाव और खुरंड,
यह सब बिना छुए ही
सहमता रहा हूं मैं
अतीत की यादों के हाथ
जब भी मुझे सहलाते हैं
दर्द बढ़ जाता है।
अब जब भी दोनों वक्त मिलते हैं
मैं वीरान हो जाता हूं,
निस्पंद है सब गलियां, बाजार और चौराहे
मैं बस खुद ही कांपता रहता हूं
न जाने कौन सी दहशत से
जब भी आसमान के आइने में
खुद को देखता हूं,
सिहर जाता हूं यह बढ़ते हुए दाग देखकर
पहचान नहीं पाता खुद को
कौन ढूंढ़ेगा मुझे
और लौटाएगा मुझी को।