गुरु को प्रणाम है / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
कण-कण में समान चेतन स्वरूप बसा,
एकमात्र सत्य रूप दिव्य अभिराम है।
जीवन का पथ जो दिखाता तम-तोम मध्य,
लक्ष्य की कराता पहचान शिवधाम है।
धर्म समझाता कर्म-प्रेरणा जगाता और
प्रेम का पढ़ाता पाठ नित्य अविराम है।
जग से वियोग योग ईश्वर से करवाता
ऐसे शिवरूप सन्त गुरु को प्रणाम है।
जड़ता मिटाता चित्त चेतन बनाता और
शान्ति की सुधा को बरसाता चला जाता है।
तमकूप से निकाल मन को सम्हाल गुरु
ज्ञान रश्मियों से नहलाता चला जाता है।
पग-पग पर करता है सावधान नित्य
पन्थ सत्य का ही दिखलाता चला जाता है।
आता है अचानक ही जीवन में घटना-सा
दिव्य ज्योति उर की जगाता चला जाता है।
भंग करता है अन्धकार का अनन्त रूप
ज्ञान गंग धार से सुपावन बनाता है।
स्वार्थ सिद्धियों से दूर परमार्थ का स्वरूप
लोकहित जीवन को अपने तपाता है।
दूर करता है ढूँढ़-ढूँढ के विकार सभी
पावन प्रदीप गुरु मन में जगाता है।
तत्व का महत्व समझाता अपनत्व सत्व
दिव्य आत्मतत्व से एकत्व करवाता है।
जिनके पदाम्बुजों के कृपा मकरन्द बिना
मंभ्रिंग मत्त हो न भव भूल पाता है।
काम क्रोध लोभ मोह छल छद्म द्वेष दम्भ
जगत प्रपंच नहीं रंच विसराता है।
पाता नहीं नेक सुख जग देख मन्दिर में,
दुःख पर दुःख स्वयं जाता उपजाता है।
गुरु बिना ज्ञान कहाँ, ज्ञान बिना राम कहाँ,
राम बिना जीवन सकाम रह जाता है।
अभिमान सैकताद्रि होता नहीं ध्वस्त और
मान अपमान सुख, दुख को मिटाता कौन?
युग-युग से भरा हुआ था द्वेष भाव पुष्ट
तन-मन से निकाल उसको भगाता कौन?
कागदेश में फँसा था मन हंस पन्थ भूल,
दिव्य मानसर तक उसे पहुँचाता कौन?
गुरुबिन कौन पुण्य पाप समझाता यहाँ
जीवन के बुझते प्रदीप को जगाता कौन?