भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुरूद्वारे की बेटी ..... / इमरोज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: इमरोज़  » गुरूद्वारे की बेटी .....


मेरे बापू गुरूद्वारे के पाठी हैं
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ करता आया हूँ ....

तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...

आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...

इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....

वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...

देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
 बड़ा अच्छा लगता है ...

किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!
(अनुवाद: हरकीरत हकीर )