गुरू और चेला / सोहनलाल द्विवेदी
गुरू एक थे, और था एक चेला,
चले घूमने पास में था न धेला।
चले चलते-चलते मिली एक नगरी,
चमाचम थी सड़कें चमाचम थी डगरी।
मिली एक ग्वालिन धरे शीश गगरी,
गुरू ने कहा तेज ग्वालिन न भग री।
बता कौन नगरी, बता कौन राजा,
कि जिसके सुयश का यहाँ बजता बाजा।
कहा बढ़के ग्वालिन ने महाराज पंडित,
पधारे भले हो यहाँ आज पंडित।
यह अंधेर नगरी है अनबूझ राजा,
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।
मज़े में रहो, रोज लड्डू उड़ाओ,
बड़े आप दुबले यहाँ रह मुटाओ।
खबर सुनके यह खुश हुआ खूब चेला,
कहा उसने मन में रहूँगा अकेला।
मिले माल पैसे का दूँगा अधेला,
मरेंगे गुरू जी मुटायेगा चेला।
गुरू ने कहा-यह है अंधेर नगरी,
यहाँ पर सभी ठौर अंधेर बगरी।
किसी बात का ही यहाँ कब ठिकाना?
यहाँ रहके अपना गला ही फँसाना।
गुरू ने कहा-जान देना नहीं है,
मुसीबत मुझे मोल लेना नहीं है।
न जाने की अंधेर हो कौन छन में?
यहाँ ठीक रहना समझता न मन में।
गुरू ने कहा किन्तु चेला न माना,
गुरू को विवश हो पड़ा लौट जाना।
गुरूजी गए, रह गया किन्तु चेला,
यही सोचता हूँगा मोटा अकेला।
चला हाट को देखने आज चेला,
तो देखा वहाँ पर अजब रेल-पेला।
टके सेर हल्दी, टके सेर जीरा,
टके सेर ककड़ी, टके सेर खीरा।
टके सेर मिलता था हर एक सौदा,
टके सेर कूँड़ी, टके सेर हौदा।
टके सेर मिलती थी रबड़ी मलाई,
बहुत रोज़ उसने मलाई उड़ाई।
सरंगी था पहले हुआ अब मुटल्ला,
कि सौदा पड़ा खूब सस्ता पल्ला।
सुनो और आगे का फिर हाल ताजा।
थी अन्धेर नगरी, था अनबूझ राजा।
बरसता था पानी, चमकती थी बिजली,
थी बरसात आई, दमकती थी बिजली।
गरजते थे बादल, झमकती थी बिजली,
थी बरसात गहरी, धमकती थी बिजली।
लगी ढाने दीवार, मकान क्षण क्षण,
लगी चूने छत, भर गया जल से आँगन।
गिरी राज्य की एक दीवार भारी,
जहाँ राजा पहुँचे तुतर ले सवारी।
झपट संतरी को डपट कर बुलाया,
गिरी क्यों यह दीवार, किसने गिराया?
कहा सन्तरी ने-महाराज साहब,
न इसमें खता मेरी, या मेरा करतब!
यह दीवार कमजोर पहले बनी थी,
इसी से गिरी, यह न मोटी घनी थी।
खता कारीगर की महाराज साहब,
न इसमें खता मेरी, या मेरा करतब!
बुलाया गया, कारीगर झट वहाँ पर,
बिठाया गया, कारीगर झट वहाँ पर।
कहा राजा ने-कारीगर को सज़ा दो,
ख़ता इसकी है आज इसको कज़ा दो।
कहा कारीगर ने, ज़रा की न देरी,
महाराज! इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह भिश्ती की ग़लती यह उसकी शरारत,
किया गारा गीला उसी की यह गफलत।
कहा राजा ने-जल्द भिश्ती बुलाओ।
पकड़ कर उसे जल्द फाँसी चढ़ाओ।
चला आया भिश्ती, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने-इसमें खता कुछ न मेरी।
यह गलती है जिसने मशक को बनाया,
कि ज्यादा ही जिसमें था पानी समाया।
मशकवाला आया, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने इसमें खता कुछ न मेरी।
यह मन्त्री की गलती है मन्त्री की गफलत,
उन्हीं की शरारत, उन्हीं की है हिकमत।
बड़े जानवर का था चमड़ा दिलाया,
चुराया न चमड़ा मशक को बनाया।
बड़ी है मशक खूब भरता है पानी,
ये गलती न मेरी, यह गलती बिरानी।
है मन्त्री की गलती तो मन्त्री को लाओ,
हुआ हुक्म मन्त्री को फाँसी चढ़ाओ।
हुआ मन्त्री हाजिर बहुत गिड़गिड़ाया,
मगर कौन सुनता था क्या बिड़ड़िाया।
चले मन्त्री को लेके जल्लाद फौरन,
चढ़ाने को फाँसी उसी दम उसी क्षण।
मगर मन्त्री था इतना दुबला दिखाता,
न गरदन में फाँसी का फंदा था आता।
कहा राजा ने जिसकी मोटी हो गरदन,
पकड़ कर उसे फाँसी दो तुम इसी क्षण।
चले संतरी ढूँढ़ने मोटी गरदन,
मिला चेला खाता था हलुआ दनादन।
कहा सन्तरी ने चलें आप फौरन,
महाराज ने भेजा न्यौता इसी क्षण।
बहुत मन में खुश हो चला आज चेला,
कहा आज न्यौता छकूँगा अकेला!!
मगर आके पहुँचा तो देखा झमेला,
वहाँ तो जुड़ा था अजब एक मेला।
यह मोटी है गरदन, इसे तुम बढ़ाओ,
कहा राजा ने इसको फाँसी चढ़ाओ!
कहा चेले ने-कुछ खता तो बताओ,
कहा राजा ने-‘चुप’ न बकबक मचाओ।
मगर था न बुद्धु-था चालाक चेला,
मचाया बड़ा ही वहीं पर झमेला!!
कहा पहले गुरु जी के दर्शन कराओ,
मुझे बाद में चाहे फाँसी चढ़ाओ।
गुरूजी बुलाये गये झट वहाँ पर,
कि रोता था चेला खड़ा था जहाँ पर।
गुरू जी ने चेले को आकर बुलाया,
तुरत कान में मंत्र कुछ गुनगुनाया।
झगड़ने लगे फिर गुरू और चेला,
मचा उनमें धक्का बड़ा रेल-पेला।
गुरू ने कहा-फाँसी पर मैं चढँूगा,
कहा चेले ने-फाँसी पर मैं मरूँगा।
हटाये न हटते अड़े ऐसे दोनों,
छुटाये न छुटते लड़े ऐसे दोनों।
बढ़े राजा फौरन कहा बात क्या है?
गुरू ने बताया करामात क्या है।
चढ़ेगा जो फाँसी महूरत है ऐसी,
न ऐसी महूरत बनी बढ़िया जैसी।
वह राजा नहीं, चक्रवर्ती बनेगा,
यह संसार का छत्र उस पर तनेगा।
कहा राजा ने बात सच गर यही
गुरू का कथन, झूठ होता नहीं है
कहा राजा ने फाँसी पर मैं चढूँगा
इसी दम फाँसी पर मैं ही टँगूँगा।
चढ़ा फाँसी राजा बजा खूब बाजा
थी अन्धेर नगरी, था अनबूझ राजा
प्रजा खुश हुई जब मरा मूर्ख राजा
बजा खूब घर घर बधाई का बाजा।