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गुरू दक्षिणा / बीना रानी गुप्ता

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युद्ध भूमि में गिरा
ब्रह्मास्त्र से बिंधा
क्षत विक्षत कर्ण
गिन रहा अंतिम साँसे
मन में एक कचोट
एक सवाल की नोक
खरोंच रही उसकी अन्तर्रात्मा
क्या छात्रत्व में भी होती हैं जातियाँ
गुरूत्व का विराट वृक्ष भी
उग जाता है
संकीर्णता की भूमि पर।
प्रतिभा के पुष्प
कब तक घायल होंगे ?
जातिवाद के कैक्टस से।
ब्राह्मण नही था मैं
तभी तो शापवश
ब्रह्मास्त्र भूल चुका हूँ।
युद्धभूमि में निरीह
अनाथ सा पड़ा हूँ।
याद करो गुरूवर
वह मेरी गुरूभक्ति
पीड़ा सहने की शक्ति
बिच्छु के तीखे डंक
लहूलुहान शरीर
पर जिह्वा से न निकली उफ
विद्या प्राप्ति का मोह
निद्राभंग का भय
सहने की पराकाष्ठा
बन गयी अभिशाप
मेरी निष्ठा
आस्था
सब गयी व्यर्थ।
मत भूलो हे! परशुधर
अपने ज्ञान पर मत करो दम्भ
जाति पर न करो अभिमान
यह सूतपुत्र देता है
तुम्हे अभिशाप
अब न होगा कोई कर्ण
न होगा कोई एकलव्य
जिससे गुरू दक्षिणा में
माँग ली थी
तुमने सम्पूर्ण साधना।