भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुरू / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
अंधारै अर उजाळै री
ओळखाण करा‘र
ऊजळै मारगां रा
पथिक बणावण्यो गुरू
आज चेलां नैं अंधारै सूं डरावै
अर उजाळै जावण जिसो नीं छौड़े
जे कोई गुरू आ करणी करै
तो चेलो कांईं कम है
गुरू नैं गुरू नीं समझै
बापड़ो गरीब गुरू अर छाकटा चेला
पिछाण, ओळखाण अर सनमान सूं
एक-दूजै नैं कांई लेणो-देणो,
एक माईतां नैं गोडा देवै
एक नूंवो जुग बणावै
दोनूं तीया-पांचा सीखै-सिखावै
अर रीत निभावै।