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गुलज़ार की नज़्में / सिद्धेश्वर सिंह
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मैंने
गुलज़ार की नज़्मों को सारी रात जगाए रक्खा
और एक ख़ुशनुमा अहसास
मेरे इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा..।
संगतराशों के गाँव की मासूम हवा
मरमरी बुतों के पाँव पूजती रही
स्याह आँगन में
मोतियों की बारात उतरी थी
और हसीन मौसम का सारा दर्द
खिड़की के शीशों पर तैर आया था...।
इन सबके बावजूद
बन्द कमरे में
मैं था
मेरे सामने गुलज़ार की नज़्में थीं
और अँधियारे में उगता हुआ सूरज था....।