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गुलज़ार के लिए / उमेश पंत

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कभी-कभी जब पढ़ता हूँ गुलज़ार तुम्हें
ग़ुल जैसे महकते लफ़ज़ों के मानी हो जाते हैं
और लफ़ज़ ज़हन के पोरों को गुलज़ार किए देते हैं
लगता है कि एक सजा-सा गुलदस्ता
लाकर के किसी ने ताज़ा-ताज़ा रक्खा हो
और विचारों की टहनी में भावों की कोमल पँखुड़ियाँ नाच रही हों
अक्ष्रर-अक्षर मेरे ज़हन में रंग से भर जाते हैं
फिर मैं भी तो गुलज़ार हुआ जाता हूँ....