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गुलदस्तों में कुछ कनेर के फूल बचे बीमारों से / विनोद तिवारी

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गुलदस्तों में कुछ कनेर के फूल बचे बीमारों से
मुश्किल से बच पाया गुलशन उत्पाती पतझारों से

मौसम अब भी पहले ही जैसा ठंडा है क्या कीजे
कुछ गिनती के लोग दहकते फिरते हैं अंगारों-से

अवसरवादी बौने तो रहते आकाशी भवनों में
आदर्शों के मारे, भटकें यहाँ-वहाँ बंजारों-से

सपनों वाला देश कहीं तो होगा, है विश्वास हमें
नौका को खेते ही जाना है खंडित पतवारों से

क़ब्रिस्तानों में जीवन की गंध ढूँढता है शायर
पागल सर टकराता फिरता है बेजान मज़ारों से