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गुलमोहर रात ढहा / कुमार रवींद्र

गुलमोहर रात ढहा
         फूलों से लदा रहा
 
आँधी से जूझ गया
सूरज के वादे पर
सोच रहा
झरे हुए पत्तों को
लादे घर
 
अँधियाये मौसम को
         दिन ने चुपचाप सहा
 
पगली गौरैया की बातें
अनहोनी हैं
वह कहती-
बंजर में
हरियाली बोनी है
 
बैठी है फुनगी पर
        रेतीले घाट नहा