भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुलमोहर से लगातार फूल झड़ते हैं / संजय कुमार शांडिल्य
Kavita Kosh से
लोग तो इस गुलमोहर का भी बुरा मानते हैं
बिखेर देता है हरियाली छोड़ने के क्षण में
सिकुड़ा हुआ लाल फूल
तुम हँसकर पूछती हो कि तुम्हारा हँसना बुरा तो नहीं है ।
जैसे इस अँधेरे में एक-एक कर
डूबने लगेंगे रात के सितारे
एक बड़े गोते में सूरज एक दूसरे आकाश में निकलेगा
और पृथ्वी पर सुबहें नहीं होंगी ।
हँसने से अच्छा कोई व्यायाम नहीं है यह सामान्य वाक्य कहकर मैं परे देखता हूँ
सचमुच तुम्हारी हँसी के बिना यह दुनिया कितनी बेडौल हो गई है
मुझे एक सामूहिक ठहाके में वह पार्क अकबकाया और बदहवास दिखाई पड़ता है
जिसे शाम को खिलखिलाते हुए बच्चे थिर करते हैं ।
फ़ैसलों का परिणाम जिस पर पड़ता हो उसे
फ़ैसले लेने का हक़ होना चाहिए
तुम लगातार हँसती हो और गुलमोहर से लगातार फूल झड़ते हैं ।