भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुलशन की फ़ज़ा धुआँ-धुआँ है / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
गुलशन की फ़ज़ा धुआँ-धुआँ है
कहते हैं बहार का समाँ है
बिखरी हुई पत्तियाँ हैं गुल की
टूटी हुई शाख़-ए-आशियाँ है
जिस दिल से उभर रहे थे नग़्मे
पहलू में वो आज नौहा-ख़्वाँ है
हम ही नहीं पाएमाल तन्हा
ऐ दोस्त तबाह इक जहाँ है
'जालिब' वो कहाँ है इश्क़ तेरा
प्यारे वो ग़ज़ल तिरी कहाँ है