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गुलशन में जैसे फूल कली ताज़गी नहीं / सलीम रज़ा रीवा
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गुलशन में जैसे फूल कली ताज़गी नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी ये ज़िन्दगी नहीं
मैं मिल नहीं सका तो ये कैसे समझ लिया
हमको है तुमसे प्यार नहीं दोस्ती नहीं
तेरे ही दम से खुशियां है घर बार में मेरे
तू खुश नहीं तो पास मेरे भी खुशी नहीं
गर माँ है मेहरबान तो ये रब भी मेहरबाँ
माँ से जहाँ में कोई भी शै कीमती नहीं
तू क्या गया की रौनके महफ़िल चली गयी
इन चाँद में सितारों में भी रौशनी नहीं
ख़ूनें जिगर से मैंने संवरा है शेर को
मेरे ग़ज़ल का रंग कोई काग़ जी नहीं
मैं खुद गुनहगार हूँ अपनी निगाह में
उसके खुलूशो प्यार में कोई कमी नहीं
तुमसे रज़ा के शेरों में चन्दन सी है महक
तू जो नहीं ग़ज़ल भी नहीं शायरी नहीं