भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुलाग आर्कीपेलगो / विनोद शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुलाग आर्कीपेलगो<ref>अलेक्सान्द्र सोल्झेनित्सिन की मशहूर कृति का शीर्षक। गुलाग द्वीपसमूह की जेलों/श्रमशिविरों और यातना शिविरों में स्तालिन के कोप के शिकार अनेक लोगों ने नारकीय यातनाएं झेलीं</ref>

तुम हो
तुम्हारा यह कहना भ्रम है
वास्तव में तुम दिखाई देते हो, मगर हो नहीं
मृगजल की मानिंद
तुम्हारी यह दलील भी थोथी है,
कि मेरा तुम्हें कहना कि तुम नहीं हो,
का अर्थ है कि तुम हो
क्योंकि अगर तुम नहीं हो,
तो मैंने किससे कहा था-”तुम नहीं हो“
ओह माई गॉड! सॉरी, वेरी सॉरी,
शायद मुझे कहना चाहिए था-
तुम होकर भी नहीं हो।

बात यह है मेरे दोस्त
कि तुम्हारा होना, ‘होना’ है
बशर्ते वह नियंत्रित हो, तुम्हारी इच्छा से
मगर प्रकृति ने नहीं दिया कोई अधिकार
किसी भी शिशु को, चुनने का अपना पिता
और न ही शिशु जानता है उस स्त्री को,
जन्म से पहले, जिसके गर्भ में
वह रहता है कुछ समय तक
माता के गर्भ में आना तुम्हारी इच्छा नहीं थी,
विवशता थी
जेल में बंद कर दिए गए कैदी की विवशता

गर्भ से तुम बाहर आए तो भेज दिए गए
एक ‘यातना शिविर’ में जिसे हम ‘पृथ्वी’
कहते हैं और तत्ववेत्ता-‘कर्मलोक’
यह पृथ्वी जिसे तुम सात अरब मनुष्यों
की शरणस्थली समझते हो, वास्तव में
एक यातना शिविर है-
शायद, सृष्टि का विशालतम गुलाग
आर्कीपेलगो (सोल्झेनित्सिन के गुलाग से कई गुना बड़ा)
जिसमें, ‘अपने किए की सजा’ भुगत रहे अपराधियों
को कोई भी जानकारी नहीं है-
अपने अपराधों, मुकद्मे और फैसले के बारे में,
वे बेचारे तो सिर्फ इतना जानते हैं कि वे
पृथ्वीवासी हैं क्योंकि उन्होंने पृथ्वी पर रह रही
एक स्त्री की कोख से जन्म लिया
और कुछ समय बाद, मरकर वे चले जाएंगे स्वर्ग
और हो जाएंगे स्वर्गवासी
पृथ्वी के इन करोड़ो प्राणियों के साथ खेले जा रहे
इस लोमहर्षक खेल की क्रूरता
और अनिश्चितता, क्या कभी खत्म होगी?
शायद नहीं

दरअसल, यह सृष्टि ब्रह्मा जी की रचना है
एक नाट्य-कृति, जिसे लिखा उन्होंने अपने
बॉस (ईश्वर) के मनोरंजन के लिए
और मंचित हो रही है जो
काल के रंगमंच पर।

शब्दार्थ
<references/>