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गुल्लक में धूप / शंकरानंद
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दिन के खाते में
धूप सिक्के की तरह जमा है
खन-खन बजती दोपहर
बताती है कि
गुल्लक में चमक लबालब है
ख़र्च करने को
बाक़ी है अभी
न जाने कितनी सांस
न जाने कितनी रातें
इस आस में गुज़रीं
कि कल उड़ जाऊँगा
किसी पँख वाले पक्षी की तरह
न जाने कितने तारे देखकर
भूला हूँ तमाम दुस्वप्नों को
और बचा हुआ हूँ
गिलास की अन्तिम बून्द की तरह
सिक्के होते अगर तो
एक समय के बाद
चलन से बाहर हो जाते
मैं धूप जमा कर रहा हूँ ।