गुल-ए-मौसम खिला है
औ मुस्कुराने की वजह है
हाय नाकामी-ए-दिल मगर
बहुत अफ़सुर्दा सुबह है …
मिज़ाज बादलों का भी आज
आदमी की तरह है
बरसना चाहता है पर
खड़ा अपनी जगह है
बहुत खोलीं है हमने पर
उलझी हर गिरह है
थके सूरज की मानिंद
मजबूरियों से सुलह है
सितारों में चमक थी के
फ़लक-ए-शब् सिआह है
फिक्र तुमको मेरी अगर
तो क्यों इतनी जिरह है
रचनाकाल: 13/8/2013