भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुल जो दामन में समेटे हैं शरर देख लिया / ‘अना’ क़ासमी
Kavita Kosh से
गुल जो दामन में समेटे हैं शरर<ref>चिंगारी</ref> देख लिया
लाख रंगों ने छुपाया भी मगर देख लिया
मेरी आँखें, के लिए फिरती हैं बादल में हवा
सीप के होंठ हुए वा<ref>खुलना</ref>के गुहर देख लिया
मेरी पलकों पे निदामत<ref>पश्चाताप</ref> के फिर आँसू न थमे
मेरे क़ातिल ने मिरा दामने-तर देख लिया
ख़ौफ़ सा है मिरे पहलू की हर इक शय पे मुहीत<ref>व्याप्त</ref>
दिल का ग़म भी है मगर चोर ने घर देख लिया
उसने ग़ज़लें मिरी तारों की ज़बानी सुन लीं
मैं था हैराँ के कहाँ ताबे हुनर देख लिया
ज़िन्दगी ने मुझे बस इतनी ही मोहलत दी है
शाम की शाम तुझे एक नज़र देख लिया
कौन रक्खेगा यहाँ कै़द भला मेरी ‘अना’
अबकी ऐ ज़ुल्फ़े-दुता<ref>दोहरे केश चिंगारी</ref> तेरा भी सर देख लिया
शब्दार्थ
<references/>