भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुल नहीं, मैं नहीं, पियाला नहीं / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुल नहीं, मैं नहीं, पियाला नहीं
कोई भी यादगारे-रफ़्ता नहीं

फ़ुर्सते-शौक़ बन गई दीवार
अब कहीं भागने का रस्ता नहीं

होश की तल्खियां मिटें कैसे
जितनी पीता हूँ उतना नश्शा नहीं

दिल की गहराइयों में डूब के देख
कोई नग़मा खुशी का नग़मा नहीं

ग़म बहर-रंग दिलकुशा है मगर
सुनने वालों को ताबे-नाला नहीं

मुझसे कहती है मौजे-सुबहे-निशात
फूल ख़ैमा है पेशख़ैमा नहीं

अभी वो रंग दिल में पेचां हैं
जिन्हें आवाज़ से इलाक़ा नहीं

अभी वो दश्त मुंतज़िर है मिरे
जिनपे तहरीरे-पा-ए-नाक़ा नहीं

ये अंधेरे सुलग भी सकते हैं
तिरे दिल में मगर वो शोला नहीं

राख का ढेर है वो दिल 'नासिर'
जिसकी धड़कन सदा-ए-तेशा नहीं।