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गुल ही गुल है, खार नहीं है / जगदीश चंद्र ठाकुर
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गुल ही गुल है, खार नहीं है
ऐसा तो संसार नहीं है |
अधिकारों से वाकिफ है वो
लेकिन जिम्मेदार नहीं है |
यहाँ बुजुर्गों की कीमत है
घर है ये बाजार नहीं है |
आज मुल्क में है सब कुछ पर
गाँधी–सा किरदार नहीं है |
रफ्ता-रफ्ता पढ़ना खुद को
खत है कोई तार नहीं है |
प्यार वतन से नहीं है उनको
मुझको उनसे प्यार नहीं है |
मुट्ठी खोलो तो दुःख भागे
पर कोई तैयार नहीं है |