गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम / अंचित
तुम इंतज़ार कर रही हो
जाने कब से।
गुज़ार देती हो पूरी-पूरी शाम।
जाने क्या-क्या है हमारे बीच।
पटरियाँ, नदियाँ, पहाड़,
सड़क, गाँव, लोग,
शहर और समय।
जाने क्या-क्या है हमारे बीच।
आसमान सूरज और सुई की तरह
चुभता हुआ वह अनजान फ़्लाइओवर
जिसके छोर अँधेरे में डूबे हुए हैं।
एक उम्र बीत गयी है
उन पीली रोशनियों में दिखते
सड़क के उत्थान से प्यार किये।
ना, अब मन नहीं करता।
चाहते हुए भी नहीं झाँक पाना अपने अन्दर
रूह पूरी रात करती रहे फोन
और इतनी गहरी नींद में होना कि
घंटों बाद भी पता ना चले।
चले जाते हुए अक्टूबर की आखिरी सुबह उठकर
पता चलता है खो देना किसे कहते हैं।
वो एक खामोश पल।
उस एक पल में जब अन्दर की खाली जगह इतनी बढ़ जाती है,
पूरा बाहर, एक बार में निगल जाता है अन्दर।
मैं क्षितिजों से दूर रहा हूँ हमेशा
दो बड़े पहाड़, युद्धरत, अपने-अपने दंभ में चूर।
मैंने अपने लिए खोजी घाटी की राह
और वहाँ पहाड़ी फूलों में मिली रूह की गंध।
जो एक बार घाटी का हो गया,
उसे कब और कहाँ आकर्षित कर पाए पहाड़?
तुम्हें किस पल में पाना है
और किस पल में खो देना है बेकार-सा सवाल है।
बिलकुल मेरे उन चुटकुलों जैसा
जिन्हें तुम सर झटक के रवाना कर देती हो
दूसरी दुनिया की ओर।
तुमको ये छोटे शब्द ना हमेशा जीवित रख पायेंगे
ना मेरी स्मृति में स्थिर।
जिन बड़ों ने अपनी पहली घाटियाँ खोयीं
आखिर बढे दूसरी ढलानों की ओर।
तुम इंतज़ार करती हो ये सोच कर कभी कभी
एक कमज़ोर दिल और सिगरेट खाए हुए फेफड़े
अकेले हो जाते हैं कभी कभी
और बहुत ढूँढने पर भी मिलती नहीं रूह।
कुछ अटका-अटका लगता रहता है शाम को
और रात कोशिश करती है
छिपकर आने की और वैसे ही चले जाने की।
दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है इंतज़ार में बैठी लड़की,
लड़के के, युद्ध में गए लोगों के,
मौत के, मौसम के.
बाकी सब बातें फुजूल की बातें।