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गुवाड़ री धूंई / करणीदान बारहठ

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हूं गांव गुवाड़ री धूईं हूं,
म्हारो नित उजलो रूप रवै।
हूं जोत अनोखी जगमग हूं,
आ जलती जोत अनूप रवै।

सूरजड़ो जद काम काम,
मां री गोदी में सो ज्यावै।
जद सांझ सलोनो गात सजा,
धरती री आंख्या सरमावै।

टाबरिया ल्यावैे जद थेपड़ियां,
छाणा गोबर कूड़ा कर्कट।
म्हारी देही रो रूप सजै,
आ जुड़ै चोकड़ी यूं झटपट।

बूढ़ा ठेरा मोट्यार घणा,
छोटा मोटा टाबर ठीकर।
आ आ‘र मेला हो ज्यावै,
खाणो पीणो पूरो कर कर।

म्हारी देही रो रूप जगा,
चारों दिश उजली कर देवै।
भाजै अंधियारो भेलो हो,
चट रात चांदणी कर देवै।

एकर तो रूप अनूप बणै,
होलीसी झल चट बुझ ज्यावै
म्हारों उजली अर साज देख,
मिनखां री टोली जुड़ ज्यावै।

कोई तो होको भर ल्यावै,
कई चिलम री सुट मारै।
पण कई बीड़ती बाल बाल,
माथै री तोरी तरणावै।

फिर लहका लागै बातां रा,
होकै रा लागै हुंकारा।
महाभारत री रामायण री,
जद वेद पुराण रा जयकारा।

हूं असली रूप पंचायत रो,
हूं सरब गांव रो भेलापो।
हूं ऊंच नीच रो भाव छोड़,
छोटै मोटै रो मेलापो।

आ जगां बणी है जुग जुग स्यूं
रंक रहीस रो भेद नहीं
हूं छूत अछूत नहीं जाणूं
अठै मिनख रो भेद नहीं।

हूंू मन्दिर हूं मस्जिद ही हूं
हूं गोगाजी हूं रामदेव।
सगला धर्मां रो एकरूप,
हूं सकल जगत रो परम देव।

आल्हा उदल री कथा अठै,
अकबर बाबर री बात अठै।
गुरू गोविन्द नानक आय जुड़ै,
सगला मिनखां री रात कटै।

क्यूं जाओ मन्दिर मस्जिद थे,
क्यूं गोगाजी क्यूं रामदेव।
हूं एक रूप में हूं अनेक,
सगला मिनखां रो परमदेव।

दो भायां रा जद हिया फाट,
घर घर में होवै टूक टूक।
झोंको चालै जद झड़पां रो,
पग मेलै पण बै फूंक फूंक।

पंचायत जद हूं बुलवाऊं
जद डैण डोकरा जुड़वाऊं।
मोटा छोटा सै मिनखां री,
उलझी बातां हूं सुलझाऊं।

म्हारै मन्दिर री ले भभूत,
दो टूक हिया जद जुड़ ज्यावै।
भावां रा सगला भेदभाव,
म्हारी लावां में जल ज्यावै।

मन रै दिवलै जोत जगा,
हूं जुगां जुगां स्यूं जागूं हूं।
थे सूत्या लम्बी रातां हूं,
माता री राखी राखूं हूं।

दो जा सोवै दो आ जावै,
रहवै यूं आता जाता सै।
दो गुड़ ज्यावै दो उठ ज्यावै,
रहवै यूं गुड़ता उठता सै।

दो बात करै दो ऊंघ करै,
दो सुणता रै दो उड़ता रह।
दो सोच करै दो खोज करै,
दो घटता रह दो बढ़ता रह।

अठै मसकरी खुल्ली है,
सगली बातां रो भेद खुलै।
के रात हुई के दिन में ही,
घर रा पर सा सै छेद खुलै।

हूं सत राखूं सो पत राखूं,
म्हारै सत पर है मरजादा।
हूं जुगां जुगां स्यूं सुणती रूं,
मां रै गांवां री सत गाथा।

जण सोवै है हूं जागूं हूं,
सत री रखवाली राखूं हूं।
जीवण री जोत जगाऊं हूं,
मां री मरजादा राखूं हूं।

जण सो ज्यावै हूं जलती रूं,
म्हारै हिवड़ै री हूक जगै।
हू जल जल राख बणू एहड़ी,
जद अन्त राख रो ढ़ेर रवै।

जद रात ढलै मदरी मदरी,
बायरियो झोंको ले आवे।
म्हारी देही रो बच्यो खुच्यो,
सो रूप रमंतो खो ज्यावै।

हूं गर्व करूं के देही पर,
आ सरब राख री ढ़ेरी है।
आ राख रामलो ले ज्यावै,
के तेरी है के मेरी है।

पण चांद छिपै सूरज आवै,
म्हारो पुन रूप अनूप हुवै
हूं गांव गुवाड़ी री धूंई हूं,
म्हारो नित उजळो रूप रवै।