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गुस्ताख़ दिल को यार मनाता कहाँ हूँ मैं / कैलाश झा 'किंकर'
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गुस्ताख़ दिल को यार मनाता कहाँ हूँ मैं
बेशर्म के मकान में जाता कहाँ हूँ मैं।
महफिल की कुर्सियों पर न बैठे जो आदमी
उस हाल में किसी को सुनाता कहाँ हूँ मैं।
लेकर उधार जो भी गया है दुकान से
उससे वसूल कुछ भी तो पाता कहाँ हूँ मैं।
यूँ ही किसी-किसी को मदद की है बार-बार
माँगा किया खुदा से तो दाता कहाँ हूँ मैं।
नदियाँ तमाम रात की बारिश में भर गयी
बादल भी बनके व्योम में छाता कहाँ हूँ मैं।
नखरे हज़ार आपके होते हैं क्या करूँ
बस इस लिए ही द्वार पर आता कहाँ हूँ मैं।